*गुरु-पूर्णिमोत्सव*
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*गुरु-पूर्णिमोत्सव*गुरु-पूर्णिमा का यह परम् पवित्र उत्सव आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को बडे़ ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।भारतीय संस्कृति में गुरु-पूर्णिमा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र अवसर है. इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. महर्षि व्यास ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान् आदर्शो को चित्रित करते हुए, आचार तथा विचारों का समन्वय करते हुए, न केवल भारत वर्ष का अपितु सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया. इसीलिए भगवान वेद व्यास जगत् के गुरु हैं, इसलिए कहा है-*”व्यासोनारायणं स्वयं “*.इसी दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है. जिसे हमने श्रद्धापूर्वक मार्गदर्शक या गुरु माना है।*व्यक्ति-निष्ठा नहीं, तत्व-निष्ठा*हम सब यह जानते हैं कि हमारे संघ कार्य में हमने किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं माना. हमारे ऋषियों ने गुरु के गुण, विस्तार के साथ ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना है. पर इतने गुण किसी एक व्यक्ति में पाना कठिन है. किसी व्यक्ति में हम कुछ श्रेष्ठ बातें देख लेतें हैं, तो हम उसका आदर करने लगते हैं. पर जैसे ही उसके दोष ध्यान में आ जाते हैं तब हमारे मन में अनादर उत्पन्न होता है,कदाचित हम उसका तिरस्कार भी करने लगते हैं, यह सब घोर अनुचित है, क्योंकि गुरु का त्याग अपने यहाँ बड़ा पाप माना जाता है।गायत्री मंत्र के निर्माता ऋषि विश्वामित्र बडे़ उग्र तपस्वी और महान् दृष्टा थे. परन्तु उनका भी पतन हुआ. अतः किसी भी मनुष्य को ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए, कि मैं निर्दोष हूँ और परिपूर्ण हूँ. इसीलिए संघ कार्य में उचित समझा गया कि हम भावना, चिह्न, लक्षण या प्रतीक को गुरु मानें. हमने संघ कार्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प किया है समाज के सब व्यक्तियों के गुणों तथा शक्तियों को हमें एकत्र करना है. इस ध्येय की सतत् प्रेरणा देने वाले गुरु की हमें आवश्यकता थी।*तेज, ज्ञान एवं त्याग का प्रतीक*हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवन-धारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है. *यज्ञ* शब्द के अनेक अर्थ हैं. व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि-जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही यज्ञ कहा गया है. श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय एवं तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है. यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है. अग्नि का प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है — हमारा परम् पवित्र भगवाध्वज।हम श्रद्धा के उपासक हैं, अंध विश्वास के नहीं. हम ज्ञान के उपासक हैं अज्ञान के नहीं. जीवन के हर क्षेत्र में बिल्कुल विशुद्ध ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है. अज्ञान के नाश के लिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने उग्र तपश्चर्या की है. अज्ञान का प्रतीक है अंधकार और ज्ञान का प्रतीक है प्रकाश (सूर्य)।पुराणों में कहा गया है कि सूर्य नारायण रथ में बैठकर आते हैं. उनके रथ में सात घोड़े लगे हैं और उनके आगमन के बहुत पहले उनके रथ की सुनहरी गैरिक ध्वजा फड़कती हुई दिखाई देती है. इसी ध्वजा को हमने हमारे समाज का परम् आदरणीय प्रतीक माना है. वह भगवान का ध्वज है. इसीलिए हम उसे भगवद् ध्वज कहते हैं. उसी से आगे चलकर शब्द बना है *”भगवाध्वज “* वही हमारा गुरु है।हमारे यहाँ समाज की सुव्यवस्था के लिए चार आश्रम आवश्यक माने गये हैं. पहले आश्रम में विद्या प्राप्त करना, दूसरे में सामाजिक कर्तव्य को निभाना, तीसरे में समाज सेवा करना और चौथे में संन्यास लेकर मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना. यह चतुर्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ है. उसमें सर्वसंग परित्याग आवश्यक है।इस चौथे आश्रम में शुद्ध, पवित्र एवं व्रतस्थ जीवन बिताना पड़ता है. संन्यासी यह ध्यान में रखे कि मैं रात-दिन त्यागरूप अग्नि की ज्वालाओं में खड़ा हूँ. कदाचित इसीलिये हमारे यहाँ के संन्यासी भगवेवस्त्र धारण करते हैं।इस प्रकार वंदनीय संन्यास आश्रम ने जिसे मान्यता दी है, सूर्य भगवान का जो आगमन चिह्न है, अग्निशिखाओं की जो प्रतिकृति है, ऐसा हमारा भगवाध्वज, हमारा प्रेरणा स्थान है. उसी के द्वारा हमारे राष्ट्र की आत्मा प्रकट होती है।हमारे देश का इतिहास इसी तथ्य को सिद्ध करता है. इन्हीं सब कारणों से संघ ने इस परम् पवित्र तेजोमय, भगवाध्वज को गुरु स्थान पर रखा है,
गुरु-पूर्णिमा का यह परम् पवित्र उत्सव आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को बडे़ ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।
भारतीय संस्कृति में गुरु-पूर्णिमा एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र अवसर है. इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. महर्षि व्यास ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान् आदर्शो को चित्रित करते हुए, आचार तथा विचारों का समन्वय करते हुए, न केवल भारत वर्ष का अपितु सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया. इसीलिए भगवान वेद व्यास जगत् के गुरु हैं, इसलिए कहा है-
*”व्यासोनारायणं स्वयं “*.
इसी दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है. जिसे हमने श्रद्धापूर्वक मार्गदर्शक या गुरु माना है।
*व्यक्ति-निष्ठा नहीं, तत्व-निष्ठा*
हम सब यह जानते हैं कि हमारे संघ कार्य में हमने किसी व्यक्ति विशेष को गुरु नहीं माना. हमारे ऋषियों ने गुरु के गुण, विस्तार के साथ ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना है. पर इतने गुण किसी एक व्यक्ति में पाना कठिन है. किसी व्यक्ति में हम कुछ श्रेष्ठ बातें देख लेतें हैं, तो हम उसका आदर करने लगते हैं. पर जैसे ही उसके दोष ध्यान में आ जाते हैं तब हमारे मन में अनादर उत्पन्न होता है,
कदाचित हम उसका तिरस्कार भी करने लगते हैं, यह सब घोर अनुचित है, क्योंकि गुरु का त्याग अपने यहाँ बड़ा पाप माना जाता है।
गायत्री मंत्र के निर्माता ऋषि विश्वामित्र बडे़ उग्र तपस्वी और महान् दृष्टा थे. परन्तु उनका भी पतन हुआ. अतः किसी भी मनुष्य को ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए, कि मैं निर्दोष हूँ और परिपूर्ण हूँ. इसीलिए संघ कार्य में उचित समझा गया कि हम भावना, चिह्न, लक्षण या प्रतीक को गुरु मानें. हमने संघ कार्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प किया है समाज के सब व्यक्तियों के गुणों तथा शक्तियों को हमें एकत्र करना है. इस ध्येय की सतत् प्रेरणा देने वाले गुरु की हमें आवश्यकता थी।
*तेज, ज्ञान एवं त्याग का प्रतीक*
हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवन-धारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है. *यज्ञ* शब्द के अनेक अर्थ हैं. व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि-जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही यज्ञ कहा गया है. श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय एवं तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है. यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है. अग्नि का प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है — हमारा परम् पवित्र भगवाध्वज।
हम श्रद्धा के उपासक हैं, अंध विश्वास के नहीं. हम ज्ञान के उपासक हैं अज्ञान के नहीं. जीवन के हर क्षेत्र में बिल्कुल विशुद्ध ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है. अज्ञान के नाश के लिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने उग्र तपश्चर्या की है. अज्ञान का प्रतीक है अंधकार और ज्ञान का प्रतीक है प्रकाश (सूर्य)।
पुराणों में कहा गया है कि सूर्य नारायण रथ में बैठकर आते हैं. उनके रथ में सात घोड़े लगे हैं और उनके आगमन के बहुत पहले उनके रथ की सुनहरी गैरिक ध्वजा फड़कती हुई दिखाई देती है. इसी ध्वजा को हमने हमारे समाज का परम् आदरणीय प्रतीक माना है. वह भगवान का ध्वज है. इसीलिए हम उसे भगवद् ध्वज कहते हैं. उसी से आगे चलकर शब्द बना है *”भगवाध्वज “* वही हमारा गुरु है।
हमारे यहाँ समाज की सुव्यवस्था के लिए चार आश्रम आवश्यक माने गये हैं. पहले आश्रम में विद्या प्राप्त करना, दूसरे में सामाजिक कर्तव्य को निभाना, तीसरे में समाज सेवा करना और चौथे में संन्यास लेकर मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना. यह चतुर्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ है. उसमें सर्वसंग परित्याग आवश्यक है।
इस चौथे आश्रम में शुद्ध, पवित्र एवं व्रतस्थ जीवन बिताना पड़ता है. संन्यासी यह ध्यान में रखे कि मैं रात-दिन त्यागरूप अग्नि की ज्वालाओं में खड़ा हूँ. कदाचित इसीलिये हमारे यहाँ के संन्यासी भगवेवस्त्र धारण करते हैं।
इस प्रकार वंदनीय संन्यास आश्रम ने जिसे मान्यता दी है, सूर्य भगवान का जो आगमन चिह्न है, अग्निशिखाओं की जो प्रतिकृति है, ऐसा हमारा भगवाध्वज, हमारा प्रेरणा स्थान है. उसी के द्वारा हमारे राष्ट्र की आत्मा प्रकट होती है।