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उत्तरकाशीउत्तराखंडफीचर्डसामाजिक

साहित्य समाज का दर्पण है, सदियों से साहित्य समाज का मार्गदर्शन करता आया है ।बडी_बडी क्रान्तियो,सामाजिक सुधार आदि मे भी साहित्य की महती भूमिका रही है।

Lokesh Badoni
Last updated: July 12, 2024 2:05 am
Lokesh Badoni Published July 12, 2024
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सम्पादकीय

साहित्य समाज का दर्पण होता है जिसमें ब्यक्ति का व्यक्तित्व  व समाज में होने वाली सारी घटनाएं साहित्य मे दिखाई देती है दूसरी और साहित्य समाज को दिशा देने का भी काम करता है ।सदियों से साहित्य समाज का मार्गदर्शन करता आया है ।बडी_बडी क्रान्तियो,सामाजिक सुधार आदि मे भी साहित्य की महती भूमिका रही है ।
         लेकिन आज युवा साहित्य से दूर होता जा रहा है ।प्रेमचन्द,हरिवंश राय बच्चन,निराला,रामचन्द्र शुक्ल का साहित्य आज धूल खा रहा है ।ये सदसाहित्य आज पाठको की राह देख रहा है ।युवाओ मे बढती उच्छृंखलता,अपराधवृति आदि मानसिक व्याधियों के पीछे उसका साहित्य से दूर हो जाना भी एक प्रमुख कारण है ।आज युवा योग की बजाए भोग की संस्कृति की तरफ आकर्षित है और इसकी चकाचोंध मे गुम है ।वह सूर,तुलसी,कबीर के सदसाहित्य को पढना नहीं चाहता है,क्योंकि वह विलासिता और भोग के छद्म सुख को ही वास्तविक मान रहा है और सदसाहित्य से मिलने वाले आत्मिक सुख को भूल गया है ।
      सही कहते हैं कि लोग बुराई जल्दी ग्रहण कर लेते है पर अच्छाई को ग्रहण करना व्यक्ति को बुरा लगता है भले वह गुणकारी हो।यही कारण है कि लोग शराब दुकान पर जाकर ले आते हैं पर दूध बेचने के लिए लिए दूधवाले को घर_घर जाना पडता है ।यहाँ शराब से आशय पाश्चात्य सभ्यता है तथा दूध से आशय सदसाहित्य से है ।आज हम इन्जीनियर, डाक्टर, प्रशासनिक अधिकारी तो तैयार कर रहे है पर एक अच्छा इन्सान तैयार नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि अच्छा इन्सान, एक अच्छे साहित्य से ही बनता है जिससे आज का युवा विमुख हो गया है ।अच्छे साहित्यकारों को लाइक कमेण्ट शेयर के लिए तरसना पडता है पर फूहड,और अमर्यादित विडियो संवाद आदि को हजारों लाइक ,कमेण्ट, शेयर मिल जाते हैं ।ये युवाओं के सदसाहित्य से विमुख होने का परिणाम है और किसी भी देश के लिए शुभ नहीं है ।
          समय रहते गर हमने सदसाहित्य की तरफ रूख नहीं किया तो हर तरफ छद्म सुख,झूठा वैभव,विलास,आडम्बर तो दिखेगा पर संस्कार, भारतीय संस्कृति और भारतीय जीवन मूल्य लोप हो जाएंगे जो हमे अन्दर से तोड देंगे ।
            युवाओ की दिशाहीनता का एक कारण सयुक्त परिवारो का लुप्त होना भी है ।पति-पत्नी और बच्चे यह आज परिवार की परिभाषा हो गई है ।सयुक्त परिवार मे दादी_नानी की कहानियाँ बच्चों मे संस्कार को पौषित और पल्लवित करती थी आज चार सदस्यों के परिवार मे दम्पति निन्यानवे के फेर मे लगे है तो बच्चों को संस्कार देने,सदसाहित्य से जोडने वाला कोई नहीं है और यही बच्चे आगे चलकर उच्छृंखल युवा और कुसस्कारी के रूप मे सामने आते हैं ।
         सूर,मीरा,तुलसी,कबीर के साहित्य को युवाओ को पढना होगा क्योंकि भारतीय संस्कृति विश्व को राह दिखाती आई है और भारतीय युवाओ का फूहडता और असभ्य पाश्चात्य सभ्यता को अपनाना दुखद है ।वेलेण्टाइन डे ,हक डे आदि इसी बात की एक बानगी है ।

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