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सम्पादक उत्तराखण्ड अब-तकजब बालक छोटा अर्थात तीन-चार वर्ष का होता है, इस छोटी उम्र में वह कुछ विशेष विद्या नहीं जानता। तब वह सरल होता है, विनम्र होता है, उसमें जिज्ञासा होती है।”*
धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगता है। कुछ कुछ सीखने लगता है। जितना जितना सीखता जाता है, उतना उतना उसमें अभिमान भी उत्पन्न होता जाता है। *”18 20 22 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते तो वह बहुत कुछ जान लेता है। तब तक उसके शरीर में शक्ति भी आ जाती है। बुद्धि का भी विकास हो जाता है, और सांसारिक व्यवहारों को भी बहुत कुछ सीख जाता है। इन सब गुणों के कारण उसमें विशेष अभिमान उत्पन्न हो जाता है।”*
यह तो मनोविज्ञान का सामान्य नियम है, कि *”जब किसी व्यक्ति में कुछ गुण बढ़ते हैं तो साथ ही साथ अभिमान भी बढ़ता है.” “परंतु यदि गुणों के साथ-साथ उसे बचपन से ही माता-पिता, सभ्यता नम्रता अनुशासन ईश्वर भक्ति माता-पिता की सेवा बड़ों का आदर सम्मान करना इत्यादि गुण भी सिखावें, तो वह अपने अभिमान को नियंत्रण में रख सकता है। तब वह स्वाभिमानी बनता है, अभिमानी नहीं।” “अपने गुणों और योग्यता के अनुसार व्यक्ति में स्वाभिमान तो होना ही चाहिए। उसके बिना भी जीवन, कोई जीवन नहीं है।”*
*”परंतु जब व्यक्ति अपने गुणों और योग्यता को अपनी वास्तविक योग्यता से अधिक मान लेता है, तब उसमें विशेष अभिमान नामक दोष उत्पन्न होता है, जो कि अत्यंत हानिकारक होता है। इस अभिमान से अवश्य ही बचना चाहिए।”*
जब व्यक्ति में अभिमान का दोष आ जाता है, तो उसमें हठ दुराग्रह लापरवाही आदि दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं। *”इसी अभिमान के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और वह दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करने लगता है।”* कुछ लंबे समय के बाद परिस्थितियां बदलती हैं। *”जब उस पर कुछ मुसीबतें आती हैं, कुछ समस्याएं आती हैं, तब उसका अभिमान नष्ट होने लगता है। तब उसे होश आता है, कि मैंने अभिमान में आकर दूसरों के साथ बहुत से दुर्व्यवहार किए हैं।”* ऐसी स्थिति में भी यदि कोई संभल जाए, तो भी वह आगे और अधिक गलतियां करने से बच जाएगा। *”और यदि ऐसी स्थिति में भी वह अपना सुधार न करे, हठी दुराग्रही लापरवाह और अभिमानी बना ही रहे, तब तो उसका पूरा विनाश होना निश्चित ही है।”*
*”अतः ऐसी गलतियों से बचें। अपने विनाश को निमंत्रण न दें। लापरवाही असभ्यता अभिमान आदि दोषों से बचें। सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया अनुशासन आदि गुणों को अपने जीवन में धारण करें। तभी आपका जीवन सफल एवं सुखमय बनेगा, अन्यथा नहीं।
सम्पादक उत्तराखण्ड अब-तक
जब बालक छोटा अर्थात तीन-चार वर्ष का होता है, इस छोटी उम्र में वह कुछ विशेष विद्या नहीं जानता। तब वह सरल होता है, विनम्र होता है, उसमें जिज्ञासा होती है।”*
धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगता है। कुछ कुछ सीखने लगता है। जितना जितना सीखता जाता है, उतना उतना उसमें अभिमान भी उत्पन्न होता जाता है। *”18 20 22 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते तो वह बहुत कुछ जान लेता है। तब तक उसके शरीर में शक्ति भी आ जाती है। बुद्धि का भी विकास हो जाता है, और सांसारिक व्यवहारों को भी बहुत कुछ सीख जाता है। इन सब गुणों के कारण उसमें विशेष अभिमान उत्पन्न हो जाता है।”*
यह तो मनोविज्ञान का सामान्य नियम है, कि *”जब किसी व्यक्ति में कुछ गुण बढ़ते हैं तो साथ ही साथ अभिमान भी बढ़ता है.” “परंतु यदि गुणों के साथ-साथ उसे बचपन से ही माता-पिता, सभ्यता नम्रता अनुशासन ईश्वर भक्ति माता-पिता की सेवा बड़ों का आदर सम्मान करना इत्यादि गुण भी सिखावें, तो वह अपने अभिमान को नियंत्रण में रख सकता है। तब वह स्वाभिमानी बनता है, अभिमानी नहीं।” “अपने गुणों और योग्यता के अनुसार व्यक्ति में स्वाभिमान तो होना ही चाहिए। उसके बिना भी जीवन, कोई जीवन नहीं है।”*
*”परंतु जब व्यक्ति अपने गुणों और योग्यता को अपनी वास्तविक योग्यता से अधिक मान लेता है, तब उसमें विशेष अभिमान नामक दोष उत्पन्न होता है, जो कि अत्यंत हानिकारक होता है। इस अभिमान से अवश्य ही बचना चाहिए।”*
जब व्यक्ति में अभिमान का दोष आ जाता है, तो उसमें हठ दुराग्रह लापरवाही आदि दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं। *”इसी अभिमान के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और वह दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करने लगता है।”* कुछ लंबे समय के बाद परिस्थितियां बदलती हैं। *”जब उस पर कुछ मुसीबतें आती हैं, कुछ समस्याएं आती हैं, तब उसका अभिमान नष्ट होने लगता है। तब उसे होश आता है, कि मैंने अभिमान में आकर दूसरों के साथ बहुत से दुर्व्यवहार किए हैं।”* ऐसी स्थिति में भी यदि कोई संभल जाए, तो भी वह आगे और अधिक गलतियां करने से बच जाएगा। *”और यदि ऐसी स्थिति में भी वह अपना सुधार न करे, हठी दुराग्रही लापरवाह और अभिमानी बना ही रहे, तब तो उसका पूरा विनाश होना निश्चित ही है।”*
*”अतः ऐसी गलतियों से बचें। अपने विनाश को निमंत्रण न दें। लापरवाही असभ्यता अभिमान आदि दोषों से बचें। सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया अनुशासन आदि गुणों को अपने जीवन में धारण करें। तभी आपका जीवन सफल एवं सुखमय बनेगा, अन्यथा नहीं।
धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगता है। कुछ कुछ सीखने लगता है। जितना जितना सीखता जाता है, उतना उतना उसमें अभिमान भी उत्पन्न होता जाता है। *”18 20 22 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते तो वह बहुत कुछ जान लेता है। तब तक उसके शरीर में शक्ति भी आ जाती है। बुद्धि का भी विकास हो जाता है, और सांसारिक व्यवहारों को भी बहुत कुछ सीख जाता है। इन सब गुणों के कारण उसमें विशेष अभिमान उत्पन्न हो जाता है।”*
यह तो मनोविज्ञान का सामान्य नियम है, कि *”जब किसी व्यक्ति में कुछ गुण बढ़ते हैं तो साथ ही साथ अभिमान भी बढ़ता है.” “परंतु यदि गुणों के साथ-साथ उसे बचपन से ही माता-पिता, सभ्यता नम्रता अनुशासन ईश्वर भक्ति माता-पिता की सेवा बड़ों का आदर सम्मान करना इत्यादि गुण भी सिखावें, तो वह अपने अभिमान को नियंत्रण में रख सकता है। तब वह स्वाभिमानी बनता है, अभिमानी नहीं।” “अपने गुणों और योग्यता के अनुसार व्यक्ति में स्वाभिमान तो होना ही चाहिए। उसके बिना भी जीवन, कोई जीवन नहीं है।”*
*”परंतु जब व्यक्ति अपने गुणों और योग्यता को अपनी वास्तविक योग्यता से अधिक मान लेता है, तब उसमें विशेष अभिमान नामक दोष उत्पन्न होता है, जो कि अत्यंत हानिकारक होता है। इस अभिमान से अवश्य ही बचना चाहिए।”*
जब व्यक्ति में अभिमान का दोष आ जाता है, तो उसमें हठ दुराग्रह लापरवाही आदि दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं। *”इसी अभिमान के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, और वह दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करने लगता है।”* कुछ लंबे समय के बाद परिस्थितियां बदलती हैं। *”जब उस पर कुछ मुसीबतें आती हैं, कुछ समस्याएं आती हैं, तब उसका अभिमान नष्ट होने लगता है। तब उसे होश आता है, कि मैंने अभिमान में आकर दूसरों के साथ बहुत से दुर्व्यवहार किए हैं।”* ऐसी स्थिति में भी यदि कोई संभल जाए, तो भी वह आगे और अधिक गलतियां करने से बच जाएगा। *”और यदि ऐसी स्थिति में भी वह अपना सुधार न करे, हठी दुराग्रही लापरवाह और अभिमानी बना ही रहे, तब तो उसका पूरा विनाश होना निश्चित ही है।”*
*”अतः ऐसी गलतियों से बचें। अपने विनाश को निमंत्रण न दें। लापरवाही असभ्यता अभिमान आदि दोषों से बचें। सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया अनुशासन आदि गुणों को अपने जीवन में धारण करें। तभी आपका जीवन सफल एवं सुखमय बनेगा, अन्यथा नहीं।