आचार्य लोकेश बडोनी
सम्पादक उत्तराखण्ड अब-तक
एक वैदिक सिद्धांत है, कि ।प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है.”* जी हां! यह ठीक है, कि *”प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में ‘स्वतंत्र’ है। लेकिन यह भी ध्यान रहे, कि वह स्वतंत्र तो है, परन्तुशश ‘स्वच्छंद’ नहीं।”*
यहीं पर बहुत से लोग भूल करते हैं। *”वे स्वतंत्रता को ‘स्वछंदता’ समझ लेते हैं।”* बहुत से लोग तो इन दोनों का अंतर भी नहीं समझते, कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में भेद क्या है? लीजिए, इन दोनों का भेद भी समझ लीजिए।
*”संविधान की सीमा में रहकर अपनी इच्छा से कार्य करना, इसे ‘स्वतंत्रता’ कहते हैं।” और “संविधान का उल्लंघन करके अपनी इच्छा से जो मन में आए वही काम करना, इसे ‘स्वच्छंदता’ कहते हैं।”*
*”वैदिक शास्त्रों के अनुसार स्वच्छंदता ठीक नहीं है, क्योंकि यह ‘अधर्म’ है। दूसरों के लिए दुखदायक है। और स्वतंत्रता ठीक है, क्योंकि यही ‘धर्म’ है। यह दूसरों के लिए सुखदायक है।” “स्वच्छंदता ठीक क्यों नहीं है? इसलिए ठीक नहीं है, क्योंकि इससे दूसरों को कष्ट पहुंचता है।” “दूसरों को कष्ट देना अधर्म है। क्योंकि स्वभाव से ही कोई भी व्यक्ति कष्ट भोगना नहीं चाहता।”* इसी बात को आप अपने ऊपर लागू करके देखिए, तो आपको यह बात शीघ्र ही समझ में आ जाएगी। *”यदि आप को कोई दूसरा व्यक्ति कष्ट दे, तो क्या आप उस कष्ट को भोगना चाहेंगे? नहीं।” “इसलिए सबके साथ ठीक-ठीक व्यवहार करना ही धर्म है, यही स्वतंत्रता है, यही उचित है।”*
इसका उपाय यही है कि *”संविधान की सीमा के अंतर्गत रहकर वही वही कार्य किए जाएं, जिनकी संविधान में छूट दी गई है। संविधान में ऐसे पचासों कार्य हैं, जिनको करने की छूट दी गई है। जैसे शाकाहारी भोजन खाना, यज्ञ करना ईश्वर का ध्यान करना सड़क पर चलते समय यातायात के नियमों का पालन करना, गार्डन में सैर करना बाजार में खरीदारी करना टिकट लेकर रेल बस आदि में यात्रा करना इत्यादि।” “इन पचासों कार्यों में से जो भी आपको अच्छा लगे, उसे करें, यही ‘स्वतंत्रता’ है। यही धर्म है। यही सबके लिए सुखदायक है। इससे दूसरों को कष्ट नहीं होगा। इसलिए यह ठीक है।”*
*”यदि संविधान के विरुद्ध आचरण करेंगे, अपनी मनमानी करेंगे, तो ‘स्वच्छंदता’ कहलाएगी। जैसे रात को देर तक स्टीरियो बजाना या जोर से टीवी चलाना, व्यर्थ में लड़ाई झगडे करना, चोरी करना, व्यभिचार करना आदि। इससे दूसरों को कष्ट होता है। जो वृद्ध लोग रात को सोना चाहते हैं, वे सो नहीं पाते। जो विद्यार्थी पढ़ना चाहते हैं, वे पढ़ नहीं पाते।” “तो इस प्रकार से मनमानी करके दूसरों को दुख देने का काम ‘स्वच्छंदता’ कहलाती है। यही अधर्म है। इसलिए जीवन जीने का यह ढंग अच्छा नहीं है।”*
*”अतः ऊपर बताए स्वतंत्रता वाले ढंग से जीवन जीना ही अच्छा है। क्योंकि इसमें आपको भी कष्ट नहीं, और दूसरों को भी नहीं। आप भी सुखी और दूसरे भी सुखी।”
यहीं पर बहुत से लोग भूल करते हैं। *”वे स्वतंत्रता को ‘स्वछंदता’ समझ लेते हैं।”* बहुत से लोग तो इन दोनों का अंतर भी नहीं समझते, कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में भेद क्या है? लीजिए, इन दोनों का भेद भी समझ लीजिए।
*”संविधान की सीमा में रहकर अपनी इच्छा से कार्य करना, इसे ‘स्वतंत्रता’ कहते हैं।” और “संविधान का उल्लंघन करके अपनी इच्छा से जो मन में आए वही काम करना, इसे ‘स्वच्छंदता’ कहते हैं।”*
*”वैदिक शास्त्रों के अनुसार स्वच्छंदता ठीक नहीं है, क्योंकि यह ‘अधर्म’ है। दूसरों के लिए दुखदायक है। और स्वतंत्रता ठीक है, क्योंकि यही ‘धर्म’ है। यह दूसरों के लिए सुखदायक है।” “स्वच्छंदता ठीक क्यों नहीं है? इसलिए ठीक नहीं है, क्योंकि इससे दूसरों को कष्ट पहुंचता है।” “दूसरों को कष्ट देना अधर्म है। क्योंकि स्वभाव से ही कोई भी व्यक्ति कष्ट भोगना नहीं चाहता।”* इसी बात को आप अपने ऊपर लागू करके देखिए, तो आपको यह बात शीघ्र ही समझ में आ जाएगी। *”यदि आप को कोई दूसरा व्यक्ति कष्ट दे, तो क्या आप उस कष्ट को भोगना चाहेंगे? नहीं।” “इसलिए सबके साथ ठीक-ठीक व्यवहार करना ही धर्म है, यही स्वतंत्रता है, यही उचित है।”*
इसका उपाय यही है कि *”संविधान की सीमा के अंतर्गत रहकर वही वही कार्य किए जाएं, जिनकी संविधान में छूट दी गई है। संविधान में ऐसे पचासों कार्य हैं, जिनको करने की छूट दी गई है। जैसे शाकाहारी भोजन खाना, यज्ञ करना ईश्वर का ध्यान करना सड़क पर चलते समय यातायात के नियमों का पालन करना, गार्डन में सैर करना बाजार में खरीदारी करना टिकट लेकर रेल बस आदि में यात्रा करना इत्यादि।” “इन पचासों कार्यों में से जो भी आपको अच्छा लगे, उसे करें, यही ‘स्वतंत्रता’ है। यही धर्म है। यही सबके लिए सुखदायक है। इससे दूसरों को कष्ट नहीं होगा। इसलिए यह ठीक है।”*
*”यदि संविधान के विरुद्ध आचरण करेंगे, अपनी मनमानी करेंगे, तो ‘स्वच्छंदता’ कहलाएगी। जैसे रात को देर तक स्टीरियो बजाना या जोर से टीवी चलाना, व्यर्थ में लड़ाई झगडे करना, चोरी करना, व्यभिचार करना आदि। इससे दूसरों को कष्ट होता है। जो वृद्ध लोग रात को सोना चाहते हैं, वे सो नहीं पाते। जो विद्यार्थी पढ़ना चाहते हैं, वे पढ़ नहीं पाते।” “तो इस प्रकार से मनमानी करके दूसरों को दुख देने का काम ‘स्वच्छंदता’ कहलाती है। यही अधर्म है। इसलिए जीवन जीने का यह ढंग अच्छा नहीं है।”*
*”अतः ऊपर बताए स्वतंत्रता वाले ढंग से जीवन जीना ही अच्छा है। क्योंकि इसमें आपको भी कष्ट नहीं, और दूसरों को भी नहीं। आप भी सुखी और दूसरे भी सुखी।”